इस ब्लॉग से मेरी अनुमति के बिना

कोई भी रचना कहीं पर भी प्रकाशित न करें।

Saturday 22 September 2012


मेरा शहर जी रहा है 

वह दर्दनाक मंज़र 

दिल को दहलाता,करुण विलाप 
सैंतीस साल बाद भी महफूज़ है ।
आँखों की मद्धिम रोशनी में 
झलक रही है दूसरे गाँवों की ओर पलायन 
और अपनी ज़मीन से  विरह की चीख- पुकार ।
गंगा के पानी का स्तर बढ़ रहा है 
तब पता नहीं था बाढ़ क्या होती है ?
कच्ची उम्र का तकाज़ा ,प्रशासन की चेतावनी 
बेहद आकर्षक लगती थी तब 
देखते -देखते पहला तल्ला डूब गया 
हमारा छत शरणार्थी स्थल बन गया 
एक रोटी पर पाँच मुँहों का निवाला था ।
बाढ़ ने हम एकाकी परिवार वालों को 
सामुहिकता में जीना सीखा दिया ।

मेरा शहर मर रहा था 

माँ कहती थी पटना को 
आग और पानी का सदा खतरा है 
चारों ओर पानी ही पानी 
न पेड़ ,न परिंदे ,न मनुष्य ,न जंतु 
क्या ही वीभत्स नज़ारा था 
आज भी आँखें स्याह हो जाती हैं ।
नावें चलतीं थीं बीच शहर में 
जीवितों के लिए ,अन्यथा लाशें तो 
तैर रहीं थीं ।
वह घिनौनी बदबू ,घिनौना माहौल 
जानलेवा होती जा रही थी ।

सात  दिनों की खतरनाक तबाही के बाद 

पानी का स्तर नीचे हो रहा था 
बारिश बंद हो चुकी थी 
मेरा शहर जीने की जद्दोजहद में लगा था 
वह पावन भूमि जिसकी मिट्टी में दफ़न है 
वीर शासकों के तन 
उनसे उत्पन्न रक्त - बीज दुःख - दारिद्रय को 
उड़न - छू करना बखूबी जानते हैं ।

और वह भोर आ ही गयी 

नई ऊर्जा विकीर्ण हो रही थी 
परिदों की चहचहाहट तूफानी रातों को 
विस्मृत कर रही थीं 
दुकानें सज गयीं ,
पेड़ - पौधे नई कोपलों से लद गए 
मिट्टी के कण - कण में समाहित ज्ञान - विज्ञान 
उर्जस्वित होने लगा है 
मेरा शहर जानता है  ,
आग में तपकर सोना कुंदन बनता है 
दुःख के सागर से सुख का मोती निकलता है 
मेरा शहर कभी नहीं मर सकता है 
मेरा शहर जी रहा है ।

No comments:

Post a Comment