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Monday 8 October 2012


लघु कथा 
   
                                                      हमारी धरोहर 




साहिबाबाद की तंग गलियाँ जहाँ चूड़ियों का कारोबार बड़े पैमाने पर होता था ,हमेशा ही मेरे आकर्षण का केंद्र रही है ।इस बार बहुत दिनों बाद वहाँ जाना  हुआ ।भाई - भाभी ने तो जैसे रिश्तेदारी को विसर्जित ही कर दिया था ,पर कुछ दफ्तर के काम से वहाँ का टूर बन गया था ।यह डर था कि अगर पतिदेव गए और उचित मेहमान नवाज़ी न की गयी तो फिर से एक खटास ताउम्र रह जायेगी ।इसलिए मैंने अकेले ही जाने का फैसला किया ।अपने अपमान का घूँट पी लूँगी।
                                   दरवाज़ा खोलते ही भाई ने स्वागत किया । "आ जाओ ,बहुत दिनों बाद 
आयी ।"भाभी करीब बीस मिनट बाद अपने बेडरूम से निकल कर एक फीकी मुस्कान बिखेरती हुई रसोई की ओर चली गयी ।यह बात तो कब से जाहिर हो गयी थी कि वह भाई जो मेरी कहानियों का आनंद लिए बिना सोता नहीं था ,उसके लिए रिश्तों की गर्माहट जाने कब की ठंडी हो चुकी थी ।मेरा अपना कमरा माडर्न  बाथरूम में तब्दील हो गया था ।माता - पिता की तस्वीर पर एक मोटी परत धूल की  जमी हुई एक टेबल पर पड़ी थी ।मुझे लगा शायद सफाई के लिए उसे उतारा गया होगा ।
                सुबह उठते ही मैंने चूड़ियों की गलियों में जाने की इच्छा व्यक्त की ।भाभी ने बताया ,"अरी ,अब वो गलियाँ कहाँ,उन्हें तो ध्वस्त कर बहुमंजीलीय  कालोनी में बदल दिया गया है ।"मैं सोचने लगी कि क्या पुरानी धरोहर यूँ ही मिट जायेगी ।हमारी आने वाली पीढ़ियाँ किसी शहर के विकास में सर्वस्व बलिदान देने वाली छोटी - छोटी गलियों और कस्बों के अस्तित्व को शायद किताबों में भी न पढ़ पायें ।
                         तभी बाहर से कबाड़ी वाले की आवाज़ आयी ।मैंने सुना भाभी अपने नौकर को कह रही थीं कि टेबल पर पड़ी सभी सामानों को दे दो ,उन्हें रख कर  बेकार ही घर में कचरा बढ़ता है ।अभी तक तो मैं शहर के पुनर्निर्माण पर स्तब्ध थी और अब माता - पिता की तस्वीर को कचरे में तब्दील होते देख रो पड़ी ।कैसे कोई इतना संवेदनहीन हो सकता है ?क्या इसी  आधुनिकता को विकास कहते हैं ??

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