पतझड़
भूरी ,पीली - पीली ,कुछ सुनहरी
मटमैली ,कहीं टंगती ,कहीं झरती
हल्दी सी रंगत वाली प्रकृति
सिंगार के पहले भी इतराती ।
वो बदरंगी पत्तियाँ सूखती हैं
पतंग सरीखी नभ में तरती हैं ।
दुःख के बादल जब घिरते हैं
हम उसे पतझड़ की संज्ञा देते हैं
पतझड़ अपने साथ ढोता है
ग्लानि,गम ,उदासी ,उत्ताप ।
पर ,इस वीरानगी में भी जीवन्तता है
बिछ जाती हैं सुखी पत्तियाँ राहों में
कुचल कर पैरों तले
चरमराने की विशिष्ट ध्वनि
मचाती है वीरानों में ।
उड़ती है हवाओं संग जब
जाने किस व्यथित हृदय की पाती बन
पहुँच जाती पिय पास ,जहां न जाए तन ।
सच ,खोने के बाद ही है पाने का सुख
रिक्तता में होती समग्रता
सुख की अहमियत है तभी
जब दुःख कुठराघात करता ।
पतझड़ होता है बेरौनक
वसंत तभी लगता मनमोहक ।
पतझड़ केवल ऋतुचक्र नहीं
वह जीने की कला है
जीवट है ,जिजीविषा प्रबल कर
एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माता है ।