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Tuesday 22 January 2013


  सूरज 

गगनचुम्बी पर्वतों के पीछे से 
सहमा -सकुचाता सूरज 
ज्यों - ज्यों निकलता है 
लाल घूँघट का पट खोले 
लजाती सी छुई - मुई किरणें 
करवटें बदलती 
ढालों से तलहट तक 
छा जाती हैं ।
अलसाई सी धरती 
कुनमुनाती हुई तब 
अंगड़ाई लेती है
 और मंद पवन का 
  एक शरारती झोंका 
आँचल हरा उड़ाकर 
निश्छल मुस्काता है ।
देख भास्कर को चढ़ता उत्तरोत्तर 
सागर भी कसमसाता हुआ 
हौले -हौले उठता है 
लहरों की संगमरमरी देह पर 
सुनहरी किरणों की अठखेलियाँ 
लड़कपन की चुहलबाजी सी हैं ।
चीर कर घने अरण्यों को 
फुनगियों पर से फिसलता सूरज 
धूप -छाँव का खेल खेलता 
धरती के बेहद करीब आ 
अपनी नर्म - गर्म साँसों से 
मुहब्बत का पैगाम सुनाता है ।
 क्षितिज पर ख़ुशी - ख़ुशी ढलता 
सागर के अंक में सिमटता 
उस पार धरती के, यही चक्र दोहराता 
और लिख जाता वहाँ भी हर दिन 
इश्क की एक नई इबारत    ।

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना रची है आपने!
    इस ब्लॉग का तो मुझे पता ही नहीं था!
    इस पर फॉलोवर की सूचि भी लगाइए!

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  2. खुशी-खुशी ढलता, अंक में सिमटता, उस पार यही चक्र दोहराता, इश्‍क की नई इबारत लिखता........प्रकृति के माध्‍यम से सद्भावना का मासूम प्रयास।

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