लड़की
पिता की अंगुली पकड़ कर चलने वाली लड़की
देखते - देखते सयानी हो जाती है
अपने निवाला का फ़िक्र छोड़कर
पिता की दवाई का खर्च उठाने लगती है ।
माँ ने जब से बिस्तर पकड़ा है
रसोई को करीने से सजाने की जिम्मेवारी
भी वह उठाने लगी है
अपना सोलहवां वसंत देखने से पहले ही
वह बड़ी हो जाती है ।
घर के पुराने सामान जैसे बिकते हैं
वह भी एक दिन बेच दी जाती है ।
पति की छाया बन कर चलने वाली लड़की
अपने सुगढ़ स्पर्श से
एक मकान को घर बना देती है
रोटी की सौंधी खुशबू से लेकर
बैठक में रखे रजनीगंधा की तरह
वह महकती रहती है।
सुबह की शुरुवात उससे होती है
दिन भर चक्कर घुरनी की तरह घुमती
रात को बिस्तर पे जाने वाली
वह अंतिम प्राणी होती है
एक लड़की कहाँ नहीं बसती है ?
कमरे के कोने - कोने से लेकर
फिजाओं में जहां तक नज़र जाए
वह ही वह होती है ।
अपने बच्चों में जान बसाने वाली लड़की
एक दिन उसके रहमो करम की मोहताज़ हो जाती है ।
अपनी सुध गवां कर
बेटे - बहू की सेवा में
अहर्निश जुड़ी रहती है
तब घर की रानी सबसे संकीर्ण
कमरे में ठेल दी जाती है
उसी एक पुराने सामान की तरह
जो अपनी अहमियत खो बैठा है ।
जिम्मेदारियों तले पिस - पिस कर
जीने वाली लड़की
जानती है कि वह है ,तो घर है ।
काश ऐसी पहचान उन सबमें होती
जिनसे वह बेटी ,पत्नी और माँ
के रूपों में जुड़ी होती है ।