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Tuesday 19 November 2013

  क्या सचमुच बीता
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 बीत   गया जो कल 

अतीत का बन पल 
सचमुच बीता ,या है छल 
बताओ, इस पहेली का हल। 

मिलन देहरी पर नैन बिछाए 

आते हैं सावन ,वसंत कुम्हलाए 
नूतन सम्बन्धों का आवरण चढ़ाए 
बिसर रहे हैं पुरातन के साए। 

यंत्रवत सी जीवन की  गति 

स्वकृत बाड़  में विचरता मति 
तृषा - जाल है भरमाता अति 
हर पराजय में जीवन की इति। 

समय का फेर बेशक भारी  पड़ता 

फिर भी वर्षों से मन रीता लगता 
हवाओं संग जब कचनार महकता 
अधरों पर मुस्कान थिरकता 

मुस्कान यह अनायास क्यूँ उभरता 

बेमौसम मेघ का एक टुकड़ा उतरता 
और आँखों  में क्यूँ है छा जाता 
जब सब कुछ है बीता ?

इक  बूँद स्वाति का बन 

इक वारिद तृप्ति का बन 
इक विभास आस का बन 
इक ज्योत अमावस का बन

उर  के स्पंदन  में अतीत बसता 
कभी हर्ष , कभी अश्क बनता 
कभी दर्द, कभी दवा बनता 
बीता ,फिर क्या सचमुच बीता ?

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