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Monday 22 July 2013

    ज्ञान

छूटेगा  संशय  ,टूटेगा  भ्रम 
व्याधियों का नहीं चलेगा क्रम 
तेज का दर्प जगमगा उठेगा 
ज्ञान से आलोकित घर - घर होगा 
यही संकल्प दृढ़ करना है  
जन - जन को शिक्षित करना है ।
जहाँ नहीं ज्ञान का प्रकाश है 
वहाँ  अन्धविश्वास का राज है 
शिक्षा पर  टिका है सदाचार 
सुख - शांति का यह आधार 
जात -पात के झगड़े हटाना है 
ऊँच - नीच का भेदभाव मिटाना है। 
धर्म के नाम पर जो दंगे करते 
मज़हब के खिलाफ आतंक रचते 
ज्ञानालोक से वे मरहूम रहते हैं 
इसलिए नहीं जानते वे क्या करते हैं 
कर्णधारों को शिक्षित करना है 
प्रौढ़ शिक्षा का अलख जलाना है ।
अज्ञानता का तम जब छंटेगा
बुराइयों का महल ध्वस्त होगा 
नवनिर्माण का बीज अंकुरित करके 
हर चेहरे पर मुस्कान खिला के 
अपना भाग्य सितारा चमकाना है 
भारत को अग्रगणी बनाना है । 

Wednesday 17 July 2013

मैं एक पेड़ होती


 मैं एक पेड़ होती 

कभी - कभी लगता है 
कितना अच्छा होता गर 
मैं एक पेड़ होती  !
मेरी ठंडी घनी छाँव में
तुम थोड़ा सुस्ता लेते
जो होते श्रांत - क्लांत ।
देख तुम्हें खिल उठते
मेरे  फूल से अंग - प्रत्यंग
और गिर कर तुम्हारी राहों में
सुन्दर सेज सजा देते ।
मेरी शाखाओं में बैठे पंछी
मधुर स्वर में कलरव कर
तुम्हे मीठी नींद सुला देते
मेरी तना से सट कर
तुम्हारा खड़ा होना
वह स्पर्श सुख देता
जिसके अहसास से आजीवन
मैं झूमती - लहराती रहती
एक अनोखे उन्माद में ।
इक सपना भी संजोयी हूँ
कि जिस दिन गिर जाऊँ
भीषण आँधी की मार से
तुम मुझे माटी दे देना
तुम्हारा स्पर्श चिरनिद्रा में भी
अपेक्षित रहेगा।     

Tuesday 2 July 2013

जान नई भरते हैं

 जान नई भरते हैं 

मौसम की अंगड़ाई कुछ कहती है 
फिज़ाओं में तरन्नुम भरती है 
भूल कर अपनी खताओं को
 एक - दूजे का  हाथ थामते हैं  ।
बड़ी शिद्दत से सजाया है यादों को 
खट्टी - मीठी बातों और तकरारों को 
सुस्त पड़ी बेजान धडकनों में 
आओ जान नई भरते हैं । 
रात शबनमी बार - बार आती नहीं 
नूर की कशिश हर दम लुभाती नहीं 
धवल चांदनी का नेह निमंत्रण 
आओ मिल कर स्वीकारते हैं ।
कारवाँ ज़िन्दगी का चलता जाएगा
किस टीले पे जाने कब पड़ाव आएगा 
थोड़ा तुम चलो ,थोड़ा मैं चलूँ 
ख्वाब कोई नया बुन डालते हैं ।
जी रहे हैं हम इस तमन्ना में 
कभी तो रंग भरेंगे कोरे कागज़ में 
शमा इक जलती है उम्मीदों में 
जलने को परवाने मचलते हैं ।
सागर सी ख़ामोशी में हमारी 
छिपी है प्यार की गहराई तुम्हारी 
ढहती हुई रेत को समेट  कर 
चलो ,महल इक नया बनाते हैं ।